दोस्त तुम्हारे सन्देशों का इंतजार रहता है, यूँ जैसे कोई कुम्हार के चाक पर चलती हुई कच्ची मिट्टी को कुम्हार की थाप का इंतजार, जिससे वो ले सके कोई सार्थक आकार। जबकि कच्ची मिट्टी जानती है, आकार लेने के बाद उसे अलाव में तपना भी है।
पपीहे का इंतजार मुझे नहीं पता कैसा होता है ? पर जिस तरह पीहर (अपनी माँ के घर) जाती हुई औरत को बस में किसी गांव के पहचाने हुए चेहरे का इंतजार रहता है। ठीक वैसा ही तुम्हारे जवाब का इंतजार रहता है।
जब हर बात की शुरुआत पे तुम पूछते हो “कैसे हो?”
मैं लिखता हूँ "ठीक हूँ"
पर ये लिखते हुए, अफ़सोस चबा जाती हैं मेरी ऊंगलियां, के तुमने ये मुझसे कभी पहले फ़ुरसत में पूछा होता
क्योंकि मुझे सारे काम छोड़ कर कोसों दूर से लौटना पड़ता है अपने पास, तुम्हें ये बताने के लिए की मैं असल में कैसा हूँ।
फिर तुम कहते हो "सब बढ़िया ना?"
मैं लिखता हूँ "हाँ, सब बढ़िया है",
और मुक़्त महसूस करने के लिए इंतज़ार करने लगता हूँ, तुम्हारी औपचारिकताओं के ख़त्म होने का।
तुम कहते हो "कोई परेशानी तो नहीं है ना तुम्हें, सच-सच बताना"
तुम्हारे सवालों की दस्तक मेरे अंतर्मन पर धड़धड़ाने लगती है, एक पल के लिये मैं सहम सा जाता हूँ, और बीनने लगता हूँ टुकड़े अपने हाल के।
"सच" शब्द बहुत सताता है मुझको, मैं आज तक नही समझ पाया कि कब कौन से ‘सच’ को सच में बताना होता है कौन से ‘सच’ को झुठलाना होता है।
फिर मैं सोचने लग जाता हूँ अपने हर उस अधूरेपन को, अपनी हर उस कसक को जिसे ढो कर मैं जी रहा हूँ और अगले ही क्षण अपनी वास्तविकता में वापस आ कर सधे हाथों से लिख देता हूँ, "हां, कोई परेशानी नहीं, सब ठीक-ठाक।"
प्रेम से लगायी गई अपनी आकांक्षाओं के पर काटता हूँ और दिल को समझाता हूँ की, ये सिलसिला भी क्या कम है? इसी को जी ले प्रेम समझ कर।
दिल को सीखा-पढ़ा कर प्रार्थना करता हूँ की,
कि तुम पूछते रहो हमेशा "कैसे हो?"
और मैं कहता रहूं हमेशा "ठीक हूँ"।
समझदार बनाने की कसमें खाए बैठी है, ना जाने ज़िन्दगी किन इरादों को लिए बैठी है। फिसलती जा रही है अनवरत रेत सी, फिर भी दिल-ए-नादाँ को कुर्बान,ख्वाहिशों पर किए बैठी है।